Jeevan Care Ayurveda
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आयुर्वेद विश्व की सबसे प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है जो की अनादि एवं शाश्वत है। जो शास्त्र या विज्ञान आयु का ज्ञान कराये उसे आयुर्वेद की संज्ञा दी गयी है। ऋग्वेद जो की मनुष्य जाति के लिए उपलब्ध प्राचीनतम शास्त्र है, आयुर्वेद की उत्पत्ति भी ऋग्वेद के काल से ही है। ऋग्वेद के अलावा अथर्ववेद में भी आयुर्वेदिक विषयक उल्लेख हैं तथा आयुर्वेद को अथर्वेद का उपवेद माना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद का स्मरण किया तथा इस ज्ञान को उपदिष्ट किया। चरक संहिता के अनुसार आयुर्वेद का प्रयोजन है स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का संरक्षण करना एवं यदि व्यक्ति रुग्ण हो जाता है तो उसकी चिकित्सा करना।
आयुर्वेदानुसार स्वस्थ व्यक्ति के मानदंड निम्नांकित है- “वह व्यक्ति जिसके शारीरिक एवं मानसिक दोष साम्य हों तथा परिणामतः शरीरस्थ अग्नि साम्य हो एवं उनसे उत्पन्न धातु निर्माण प्रक्रिया भी साम्य हो तथा फलस्वरूप परिपाचित मल निष्कासन प्रक्रिया भी साम्य होगी| उस व्यक्ति की आत्मा, इन्द्रिय तथा मन भी प्रसन्न होगा।”
स्वस्थ प्रयोजनार्थ सभी ग्रंथो में दिनचर्या, ऋतुचर्या, रात्रिचर्या, रसायन चिकित्सा, सद्वृत्त पालन, योगाभ्यास एवं त्रयोपस्तम्भ (आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य) का सम्यक पालन करने का निर्देश दिया है| इन सभी उपायों के सम्यक पालन से व्यक्ति न सिर्फ शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहता है अपितु पूर्ण उर्जावान एवं रोगो से मुक्त होकर पूर्णायु शतायु का भोग करता है|
इसके विपरीत मिथ्याहार विहार के सेवन से पन्च भुतात्मक शरीर की साम्यावस्था का ह्रास हो जाता है| फलतः शरीरस्थ दोष, धातु एवं मल दूषित हो जाते है एवं व्याधि का प्रादुर्भाव होता है| इससे जीवन शैली आधारित, ऋतु जन्य रोग तथा जीवाणु एवं विषाणु जनित रोग भी प्रभावी होने लगते है| अतः आयुर्वेदिय स्वस्थवृत्त के सिद्धान्त देहस्थ दोष, धातु आदि के साम्यावस्था को बनाये रखने के निमित्त से ही वर्णित है|
सभी ग्रंथो में आयुर्वेद के आठ अंगों का वर्णन किया गया है| कायचिकित्सा, बाल रोग, उर्ध्वांग चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विष चिकित्सा, जरा चिकित्सा एवं वाजीकरण चिकित्सा का अष्टांग आयुर्वेद के रूप में वर्णन किया है| स्वस्थवृत्त एवं योग भी आयुर्वेद के अभिन्न अंग है जो की वर्तमान के परिपेक्ष में काफी महत्वपूर्ण साबित हो रहा है| पूर्वोक्त स्वस्थ प्रयोजनार्थ उपायों का विस्तृत वर्णन स्वस्थवृत्त के सिद्धांतो के रूप में उपलब्ध है| ये सिद्धान्त न केवल आधुनिक जीवन शैली से होने वाले रोग अपितु जीवाणु एवं विषाणु जनित रोगों के निवारण एवं उन्मूलन में सहायक है|
आयुर्वेद की चिकित्सा रोग सामान्य चिकित्सा के बारे में न बता कर “पुरुष पुरुष वीक्ष्यं” के सिद्धान्त की अनुपालन का निर्देश देती है| और ये चीज आयुर्वेद को सभी चिकित्सा शास्त्रों से अलग रूप में प्रदर्शित करती है |
आज समूचे विश्व में असम्यक जीवन पद्धति के कारण नित नई बीमारियों का प्रादुर्भाव हो चुका है| समस्त विश्व नित नई महामारियां झेल रहा है| जो की मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा है इस परिपेक्ष में आयुर्वेदोक्त आहार एवं विहार का सम्यक सेवन ही समस्त मानव जाति के स्वास्थ्य तथा भविष्य के लिए कारगर है| अतः आयुर्वेद के उपदेशो का पालन कर स्वस्थ ओजपूर्ण, ऊर्जा सम्यक कार्य कुशल रहकर पूर्ण आयु का भोग तथा फलस्वरूप धर्मं,अर्थ, काम मोक्ष का भागी बन सकता है| तथा स्वस्थ व्यक्ति ही एक स्वस्थ समुदाय एवं स्वस्थ विश्व का निर्माण करने में सक्षम होता है|प्रत्येक मानवीय शरीर की रचना पंचतत्वों (आकाश, जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी) से मिलकर हुई है। किंतु फिर भी इनमें प्रकृति या स्वभाव की भिन्नता देखने को मिलती है, आयुर्वेद में जिसका मूल कारण त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) को बताया गया है। ये दोष मानवीय शरीर और मन में पायी जाने वाली जैविक ऊर्जा हैं। जो समस्त शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी एक व्यक्तिगत भिन्नता प्रदान करते हैं। दोषों की उत्पत्ति पंचतत्वों एवं उनसे संबंधित गुणों के माध्यम से होती है। वात आकाश और वायु, पित्त अग्नि और जल तथा कफ पृथ्वी और जल से मिलकर बना है।
1. वात
शरीर में वात के मुख्य स्थान बृहदान्त्र, जांघों, हड्डियों, जोड़ों, कान, त्वचा, मस्तिष्क और तंत्रिका ऊतक हैं। शुष्क, शीत, प्रकाश, मिनट और गति आदि वात के प्रमुख गुण हैं। वात शरीर में होने वाली सभी प्रकार की गतियों को नियंत्रित करता है, इसलिए इसे दोषों में सबसे श्रेष्ठ दोष माना जाता है। असंतुलित और अनियमित भोजन, मदपान, धूम्रपान, अनियमित दिनचर्या वात को असंतुलित करता है। परिणामस्वरूप पेट फूलना, गठिया, आमवात, शुष्क त्वचा और कब्ज आदि रोग होने लगते हैं। वात को संतुलित रखने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण में वात-संतुलित आहार लें। आरोग्यजनक और मननशील गतिविधियों में संलग्न रहें। रोजाना नियमित दिनचर्या का पालन करें, जिसमें रोज ध्यान लगाना, कठोर व्यायाम करना और समय पर सोना शामिल है।
2. पित्त
यह शरीर में पाचन और चयापचय की ऊर्जा है, जो वाहक पदार्थों जैसे कि कार्बनिक अम्ल, हार्मोन, एंजाइम और पित्तरस के माध्यम से कार्य करता है। ऊष्मा, नमी, तरलता, तीखापन और खट्टापन इसके गुण हैं। ऊष्मा इसका प्रमुख गुण है। शरीर में पित्त के मुख्य स्थान छोटी आंत, पेट, यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, रक्त, आंखें और पसीना हैं। पित्त जटिल खाद्य अणुओं के टूटने के माध्यम से शरीर को गर्मी और ऊर्जा प्रदान करता है तथा शारीरिक और मानसिक रूपांतरण और परिवर्तन से संबंधित सभी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। पित्त के असंतुलित होने पर शरीर में संक्रमण, सूजन, चकत्ते, अल्सर, असंतोष और बुखार होने लगता है।
पित्त को असंतुलित करने वाले कारक
• पित्त उत्तेजक भोजन करना।
• क्रोधावस्था में भोजन करना।
• कॉफी, काली चाय और शराब का आवश्यकता से अधिक सेवन।
• सिगरेट पीना।
• आवश्यकता से अधिक काम करना।
• अत्यधिक प्रतिस्पर्धी बनना
पित्त को संतुलित करने वाले कारक
• पित्त संतुलित आहार लें।
• शांतिपूर्ण वातावरण में भोजन करें।
• कृत्रिम उत्तेजक पदार्थों को सेवन न करें।
• शांत गतिविधियों में संलग्न रहें।
• ध्यान लगाना, योग करना, तैरना, चलना इत्यादि को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बनाएं।
3. कफ
कफ एक तरल पदार्थ है, जो शरीर में भारीपन, शीतलता, नरमी, कोमलता, मंदता, चिकनाई और पोषक तत्वों के वाहक के रूप में कार्य करता है। शरीर में कफ के मुख्य स्थान छाती, गला, फेफड़े, सिर, लसीका, वसायुक्त ऊतक, संयोजी ऊतक, स्नायुबंधन और नस हैं। शारीरिक रूप से कफ हमारे द्वारा ग्रहण किए गए भोजन को नमी प्रदान करता है, ऊतकों का विस्तार करता है, जोड़ों को चिकनाई देता है, ऊर्जा को संग्रहित करता है तथा शरीर को तरलता प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक रूप से, कफ स्नेह, धैर्य, क्षमा, लालच, लगाव और मानसिक जड़ता को नियंत्रित करता है। कफ के असंतुलन की स्थिति में वजन घटना या मोटापा बढ़ना, रक्त-संकुलन जैसे विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
कफ को असंतुलित करने वाले कारक
• पित्त उत्तेजक भोजन करना।
• आवश्यकता से अधिक भोजन करना।
• शांत, नम जलवायु में बहुत अधिक समय बिताना
• शारीरिक गतिविधि में संलग्न न होना
• अधिकांश समय घर के अंदर बिताना
• बौद्धिक चुनौतियों से बचना
कफ को संतुलित करने वाले कारक
• आनंदायी वातावरण में भोजन करें
• आनंदपूर्ण आरामदायी जीवन जीएं
• दैनिक जीवन में अनासक्ति पर ध्यान दें।
• ध्यान और लेखन की तरह आत्मनिरीक्षण गतिविधियों के लिए समय दें।
• अच्छा बनने और लाभ प्राप्त करने के मध्य अंतर करें।
• जल्दी सोएं तथा प्रातः जल्दी उठें।
अपनी संतुलित मात्रा में दोष शरीर के लिए लाभदायक होते हैं, जबकि इनकी विकृति मानव शरीर में रोगोत्पत्ति का कारण बनती है अर्थात इनकी साम्यावस्था ही स्वास्थ्य का प्रतीक है और इसमें परिवर्तन होना विकार का कारण है। आयुर्वेद की संपूर्ण चिकित्सा प्रणाली हमारे इन तीन दोषों पर आधारित है। आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है, इसलिए इनके विषय में सूक्ष्म जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है। जब आयुर्वेद में दिए गए उपचारों का वैज्ञानिक निरीक्षण किया गया तो इसमें कुछ उपचार काफी प्रभावी पाए गए किंतु कुछ उपचारों की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो पायी है। कैंसर जैसी बीमारियों में भी आयुर्वेद के सकारात्मक प्रभाव देखे गए हैं।
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Anil kumar
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